कमाऊ पूत मौसी के घर, बेघर अपने घर

कमाऊ पूत मौसी के घर, बेघर अपने घर

Newspoint24.com/newsdesk/आईएएनएस /

कमाऊ पूत मौसी के घर, बेघर अपने घर – दरअसल यह कोई मुहावरा या सूक्ति वाक्य नहीं है। पर आज के संदर्भ में बहुत ही सटीक है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश ही नहीं अन्य प्रांतों की राजनीति में यह वाक्य आज बहुत मायने रखता है। यह प्रवासी मजदूरों के पलायन और उनकी त्रासदी से जुड़ा है। मजदूर होना अपने आप में क्या एक त्रासदी है? शायद हां। यदि यह त्रासदी न होता तो महाराष्ट्र में रह रहा मजदूर इतना मजबूर न होता। उसे इस तरह बेआबरू होकर भागना न पड़ता। प्रवासी मजदूरों का ऐसा पलायन आज से पहले शायद ही किसी ने देखा हो। इस पर हम सभी को बड़ी गंभीरता से सोचना होगा।            

मुंबई के वरिष्ठ समाजसेवी, पत्रकार, साहित्यकार, लेखक और राजनेता डॉ. राममनोहर त्रिपाठी कभी – कभार अपने वक्तव्य में कहा करते थे कि उत्तर प्रदेश या बिहार हमारी मां है, तो महाराष्ट्र हमारी मौसी। आगे चलकर उनके इस वक्तव्य का राजनीतिकरण हो गया। महाराष्ट्र खासकर मुंबई के उत्तर भारतीय नेताओँ ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए इस वाक्य का इस्तेमाल शुरू कर दिया। इन नेताओं में इस वाक्य का जिसने सबसे अधिक प्रयोग किया वे हैं महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री कृपाशंकर सिंह। बाद में तो अनेकों उत्तर भारतीय नेताओं ने भी इस वाक्य को अपने वक्तव्य का हिस्सा बनाया। उत्तर भारतीय वोटरों को रिझाने के लिए इस वाक्य का प्रयोग महाराष्ट्र के मराठी भाषी नेता भी जमकर करने लगे। जिसका उन्हें फायदा भी हुआ।

जैसा कि सब जानते हैं उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के अन्य प्रांतों से लाखों की संख्या में लोगों ने महाराष्ट्र के प्रमुख शहरों खासकर मुंबई, पुणे, नासिक आदि का रुख किया। कारण स्पष्ट था रोजी रोटी की तलाश या अपने जीवन स्तर को ऊंपर ले जाना। यहां बड़ी संख्या में मजदूर भी आए। उनके सामने अपने परिवार का पेट पालने की चिंता थी। महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों के विकास में इन्हीं मजदूरों का खून पसीना लगा है। इन्होंने ही अपनी कड़ी मेहनत से इसे सींचा है। गर्मी और बरसात में भी इन मजदूरों ने अपनी उसी जिंदादिली से काम किया है। इन मजदूरों का अपना घर नहीं होता। ये जहां काम करते हैं, वहीं कार्य की समाप्ति तक अपना आशियाना बना कर रहते भी हैं। यहीं इनका घर परिवार फलता फूलता भी है। मगर इन मजदूरों ने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। अपनी इस बदहाली के लिए कभी किसी को दोषी नहीं ठहराया। वे अपने उसी जीवन में हर तरह मस्त और खुश रहे।     

बहुतायत में कल कारखाने और उद्योग धंधों वाले महाराष्ट्र के इन शहरों में विकास भी बड़ी तेज गति से हुआ। सड़क, फ्लाईओवर, सागर सेतु, गटर, नालियां, मकान, इमारतें, गगनचुंबी अट्टालिकाएं, बड़े – बड़े कॉर्पोरेट ऑफिसेस, खेल और मनोरंजन के मैदान, सागर के तटों, स्टेडियम, स्पोर्ट्स क्लब, पांच सितारा होटल, रेल मार्ग, मेट्रो मार्ग आदि इत्यादि के निर्माण में इन्हीं मजदूरों ने अपना खून पसीना बहाया। इन्हीं की मेहनत से ये सब बने और आज भी इन्हीं की मेहनत से इनका रखरखाव होता है। विकास की इस गति को तेजी देने में सबसे बड़ा योगदान उत्तर भारतीयों का रहा। जिस तेजी से इन शहरों और महानगरों का विकास हुआ उसी तेज गति से दूसरे प्रांत से आए लोग भी यहां बसने लगे। बड़े – बड़े जंगल और वन क्रंक्रीट के जंगलों में परिवर्तित होते गए। पहाड़ों और जंगलों को काट – काटकर इन्हीं पर प्रांतीय मजदूरों ने आर्थिक दृष्टि से महाराष्ट्र को देश का सबसे बड़ा प्रदेश बनाया। मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी बनाने में इन्हीं मजदूरों का योगदान है। जिसे महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना संक्रमण के संकट काल में पूरी तरह भुला दिया। कोविड-19 जैसी विपदा में मजदूरों के प्रति सरकार के सौतेले रवैए से तो यही लगता है। मजदूरों को जिस कदर इस राज्य से अपने घर चले जाने को मजबूर किया गया, वह किसी से छिपा नहीं है। कहा तो यहां तक जाता है कि जिन कार्य स्थलों पर ये मजदूर अपना आशियाना बनाकर रह रहे थे, उन्हें भी खाली कराया गया। ताकि ये मजदूर मजबूर होकर यहां से चले जाएं। संकट सरकार पर नहीं था। सबसे बड़ा संकट लोगों पर था और खासकर मजदूरों के लिए कोरोना सबसे बड़ा संकट बनकर आया। प्रश्न यह है कि यदि गांव आत्मनिर्भर रहे होते तो मजदूरों की ऐसी दुर्दशा न होती।  

महाराष्ट्र की सरकार यदि इन मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी लेती तो ये मजदूर यहां से कभी न जाते। देश की आर्थिक राजधानी वाला यह प्रदेश इन मजदूरों को एक महीने की रोटी नहीं दे सका। इतने बड़े और संपन्न राज्य के लिए इससे बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है। उन्हें मजबूर किया गया कि वे अपने गृह राज्य या अपने घर चले जाएं। फिर तो बहुत से स्वाभिमानी मजदूर पैदल ही निकल पड़े अपने घर जाने को। सरकारें उन्हें बस या रेल द्वारा उनके घर भेज पाने में असमर्थ रहीं। रोते बिलखते ये मजदूर अपने परिवार और छोटे – छोटे बच्चों के साथ अपने उन्हीं गांवों की ओर चल पड़े, जहां कम से कम दो जून की रोटी तो उन्हें नसीब होगी। मजदूर बेघर थे। उनके हाथ में काम नहीं था। उनके पास पैसे नहीं थे। वे मजबूर थे। अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए वे सरकारी सहायता की ओर टकटकी लगाए लगभग एक महीने तक देखते रहे। मगर जो सहायता आई भी वह इतनी कम थी कि उसमें गुजर – बसर करना बड़ा ही कठिन था। बहुतों को तो इस तरह की कोई सहायता तक उपलब्ध नहीं हुई। आखिर वे क्या करते। उनके सामने अपने गांव चले जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था।    

इसी कड़ी में अब हम बात करते हैं उन प्रवासी उत्तर भारतीयों की, जो पढ़े – लिखे प्रोफेशनल्स हैं। यहां के शहरों महानगरों की बड़ी – बड़ी इमारतों और बंगलो में रहते हैं। जो उनका अपना है। ये महाराष्ट्र सरकार के कमाऊ पूत हैं। सरकार को कमा कर दे रहे हैं। इन्हीं के कारण आज सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) की बड़ी – बड़ी कंपनियां संचालित हैं। ये डॉक्टर हैं, वकील हैं, चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, इंजीनियर हैं, उद्योगपति हैं, शिक्षाविद हैं, बड़े – बड़े औद्योगिक, शैक्षणिक संस्थानों और कंपनियों के मालिक हैं। इन्हें महाराष्ट्र सरकार ने मजबूर नहीं किया कि ये भी अपने घर लौट जाएं। वह इसलिए क्योंकि ये खुद सक्षम हैं। इनके पास पैसा है। रुतबा है। रसूख है। अपने साथ – साथ ये महाराष्ट्र सरकार को भी पाल – पोस रहे हैं। ऐसे में प्रश्न ही नहीं उठता कि सरकार इन पर दबाव डाले या इनसे कहे कि ये अपने घर लौट जाएं।

वे प्रवासी जो कमा कर महाराष्ट्र सरकार की तिजोरी भर रहे हैं, वे उसके लिए कमाऊ पूत हैं। या यूं कहें कि ये प्रवासी हैं तो किसी और प्रांत से। उनकी मां उनका अपना प्रांत है। पर वे अपनी मौसी के पास रह रहे हैं और मौसी के लिए कमाऊ बने हुए हैं। अपनी कमाई से अपनी मौसी का घर समृद्ध कर रहे हैं। जबकि वे प्रवासी मजदूर जो अब मौसी के लिए काम लायक नहीं रहे। यानी कोरोना के चलते देश में हुए लॉकडाउन के कारण वे कोई काम नहीं कर सकते। ऐसे में ये मजदूर उसके लिए बेकाम हो गए। बेघर तो पहले से थे। तभी तो उन्हें अपनी मां के घर यानी अपने प्रांत को लौटना पड़ा। वे मौसी के लिए किसी काम के नहीं रहे। सो मौसी ने उन्हें भागने के लिए मजबूर कर दिया।

अब मां की बात करें या मौसी की। आने वाले समय में स्थितियां दोनों के लिए अनुकूल नहीं हैं। मां यानी उनका अपना प्रदेश। जहां उनका गांव है, उनका अपना घर है, अपना परिवार है, मगर उस तरह की कमाई का स्रोत नहीं है, जैसा मौसी के प्रदेश में है। मगर मौसी के प्रांत से बेआबरू होकर निकले बहुतेरे मजदूर यहां दुबारा आना नहीं चाहते। उन्हें जिस तरह का अपमान और तिरस्कार सहना पड़ा, उसे वह कभी भूला नहीं सकता। यहां प्रश्न उठता है कि क्या अपमान और तिरस्कार उनकी पेट की भूख पर जीत हासिल कर सकेगा। उनका गृह प्रदेश उन्हें नौकरी या काम दे पाने में सफल होगा। मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में काम कर क्या वह अपने परिवार का गुजर बसर कर पाएगा। हां, यहां पासा तब पलट सकता है जब मौसी के घर का कमाऊ पूत अपनी मां के पास चला जाए। क्योंकि उसकी मां उसे भी तो पुकार रही है। ऐसे में मौसी का घर यानी महाराष्ट्र प्रांत बिखर सकता है। खैर आगे चलकर जो भी हो, मगर अभी की स्थिति तो यही है कि अन्य प्रांतों का कमाऊ पूत अपनी मौसी यानी महाराष्ट्र के घर है, जबकि उसका अपना बेघर बेटा उसके घर।

Share this story