मानव संसाधन विकास का शिक्षा में रूपान्तरण

मानव संसाधन विकास का शिक्षा में रूपान्तरण

Newspoint24.com/newsdesk/गिरीश्वर मिश्र /

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गिरीश्वर मिश्र

देश की नई शिक्षा नीति के संकल्प के अनुकूल भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब ” शिक्षा मंत्रालय ” के नाम से जाना जायगा। इस पर राष्ट्रपति जी की मुहर लग गई है और गजट भी प्रकाशित हो गया है। इस फौरी कार्यवाही के लिये सरकार निश्चित ही बधाई की पात्र है। यह कदम भारत सरकार की मंशा को भी व्यक्त करता है। पर सिर्फ मंत्रालय के नाम की तख्ती बदल देना काफी नहीं होगा अगर शेष सबकुछ पूर्ववत चलता रहेगा। आखिर पहले भी शिक्षा मंत्रालय का नाम तो था ही। स्वतंत्र भारत में मौलाना आजाद, के एल श्रीमाली जी, छागला साहब , नुरुल हसन साहब और प्रोफेसर वी के आर वी राव जैसे लोगों के हाथों में इसकी बागडोर थी और संसद में पूरा समर्थन भी हासिल था। सितम्बर 1985 में जब ‘मानव संसाधन’ का नामकरण हुआ तो श्री पीवी नरसिम्हा राव जी प्रधानमंत्री थे और इस मंत्रालय को भी खुद संभाल रहे थे। वे विद्वान, कई भाषाओं के जानकार और लेखक भी थे। अतएव भारत में शिक्षा की समस्याओं से परिचित न रहे हों ऐसा नहीं कहा जा सकता।

गौरतलब है कि विभिन्न आयोगों, समितियों और शोध कार्यों में शुरू से ही शिक्षा की दुर्दशा पर चर्चा होती रही है और गुणात्मक सुधार की जरुरत पर आम सहमति रही है। इसके लिये सुधार लाने में संसाधन की कमी का हवाला दिया जाता रहा है। इन सब सीमाओं के बावजूद शिक्षा का संवर्धन करने के लिये कुछ न कुछ होता रहा और शिक्षा का आख्यान आगे चलता रहा। चूंकि शिक्षा सभ्य जीवन में एक जरूरी कवायद है इसलिए उसे रोका नहीं जा सकता इसलिए शिक्षा के नाम पर संस्थाओं को खोला जाता रहा और निजीकरण को बढ़ावा दिया गया। सरकारी विद्यालय और अन्य संस्थान कमजोर होते गए। इन सबसे शिक्षा में भी वर्ग (क्लास) बनते गए और उसका लाभ अधिकतर उच्च और मध्यवर्ग को मिला।चिन्ता व्यक्त करते रहने के बावजूद शिक्षा की प्रक्रिया की समझ और उसमें बदलाव को लेकर गंभीरता नहीं आ सकी। वह सरकारी एजेण्डे में वरीयता नहीं पा सकी। जब कभी इस तरह की कोशिशें की गई तो राजनीति की छाया हावी होती रही। शिक्षा की विसंगतियों से हम उबर नहीं सके। ऐसे में कुछ अपवाद की संस्थाएं तो बची रहीं और उनकी स्वायत्तता और राजनीतिमुक्तता से उनकी गुणवत्ता भी विश्वस्तरीय बनी रही। शेष अधिकांश संस्थाएं आज त्राहिमाम कर रही हैं।

विगत वर्षों में मोदी सरकार ने शिक्षा को लेकर हर स्तर पर विचार-विमर्श का दौर चलाया और शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया। अभी उसे मंजूरी दी गई और अब उसपर कारवाई का समय आ रहा है। नीति के प्रस्ताव निश्चित रूप से सकारात्मक परिवर्तन का संकेत देते हैं और आशा की जाती है कि इनको लागू करने के अच्छे परिणाम होंगे।शिक्षा को लेकर कुछ मुद्दों पर अब स्पष्ट सहमति है। शिक्षा सर्वांगीण हो इसके लिये शिक्षा को प्रासंगिक, सृजनात्मक, जीवनोपयोगी और सामर्थ्यवान बनाने के लिए प्रयास करना होगा।

अत: ज्ञान, कौशल और अनुभव सबको महत्व देना होगा। शिक्षा में अध्ययन के अवसर रूढ़िबद्ध न होकर व्यापक और उन्मुक्त करने वाले होने चाहिए। लोकतंत्र की आकांक्षा के अनुरूप उसे समावेशी बनाना होगा ताकि सबकी भागीदारी हो सके। मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा होनी चाहिए। साथ ही बहुभाषिकता को बढ़ावा देना होगा। बच्चों के लिये पोषण की आवश्यकता है। संरचनात्मक ढांचे को पुष्ट करना आवश्यक है। शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए। शिक्षक प्रशिक्षण को सुदृढ़ करना होगा। शिक्षा का समाज की अन्य संस्थाओं के साथ संवाद होना चाहिए। स्थानीय स्तर पर संवेदना और कार्य का अवसर मिलना चाहिए। शिक्षा को संस्कृति और प्रकृति के साथ जुड़ना चाहिए।समाज में जड़ता की जगह आशा का मनोभाव लाना भी आवश्यक होगा।

दुर्भाग्य से शिक्षातंत्र और उसकी नौकरशाही आज कुटिल होती गई है, उसे तब्दील करना बेहद मुश्किल पर जरूरी है। सारी कोशिशों के बावजूद कई विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति वर्षों से नहीं हुई है पर प्रवेश और परीक्षा का क्रम जारी है। हम कहाँ पर खड़े हैं, उसकी वस्तुस्थिति का आकलन करना आवश्यक है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्ट आचरण आदि के कारण अनेक संस्थाए रुग्ण होती गई हैं। साथ ही शिक्षा अपने परिवेश से भी प्रभावित होती है। बाजार, मीडिया और व्यापक घटनाक्रम उसे भी प्रभावित करता है। पर शिक्षा से अपेक्षा है विवेक के लिये और जो अकल्याणकर है उसका प्रतिरोध करते हुए नए-नए सपने बनने की। इनकी जगह तो शिक्षा केन्द्र हैं। इनमें विचार के स्वराज की संभावना को आकार देना होगा। नई शिक्षा नीति में इसके अवसर हैं। उनपर अमल करने की जरूरत है। आशा है ” शिक्षा” में जिस प्रक्रिया का बोध निहित है उस दिशा में शिक्षा मंत्रालय अग्रसर होगा। नाम के साथ काम भी होगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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