देश के विभिन्न क्षेत्रों में कैसे मनाया जाता है विजय और शौर्य का राष्ट्रीय पर्व दशहरा।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में कैसे मनाया जाता है विजय और शौर्य का राष्ट्रीय पर्व दशहरा।
देश के विभिन्न क्षेत्रों में कैसे मनाया जाता है विजय और शौर्य का राष्ट्रीय पर्व दशहरा।

योगेश कुमार गोयल

दशहरा अर्थात् विजयादशमी राष्ट्रीय त्योहार है, जो देशभर में धूमधाम से साथ मनाया जाता है लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में इस पर्व को मनाए जाने के तौर-तरीकों में काफी भिन्नता देखी जाती है। कुछ स्थानों पर मनाया जाने वाला दशहरा रीति-रिवाजों अथवा परम्पराओं के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है। आइए देखते हैं, देश के विभिन्न क्षेत्रों में कैसे मनाया जाता है विजय और शौर्य का राष्ट्रीय पर्व दशहरा।

कुल्लू का दशहरा देशभर में ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट पहचान बना चुका है। इस आयोजन को देखने के लिए देश-विदेश से हजारों लोग कुल्लू में एकत्रित होते हैं। विदेशों में ख्याति अर्जित कर चुका दशहरे का यह आयोजन देशभर के अन्य स्थानों के आयोजन से पूरी तरह भिन्न है। कुल्लू के दशहरे में न तो रामलीलाएं होती हैं और न ही रावण इत्यादि के पुतले जलाए जाते हैं बल्कि इस अवसर पर कुल्लू के विशाल मैदान में रघुनाथ जी का दरबार लगता है और कुल्लू घाटी के लोग अपने-अपने देवी-देवताओं के रथ सजाकर पैदल ही मैदान में रघुनाथ जी के दरबार में पहुंचते हैं। दशहरे के दिन रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है।

यहां के इस आयोजन के बारे में मान्यता है कि कुल्लू के देवी-देवता रावण के अत्याचारों से बहुत त्रस्त थे और रघुनाथ जी ने रावण का वध करके इन देवी-देवताओं पर बहुत बड़ा उपकार किया था, इसलिए रघुनाथ जी के प्रति अपना आभार प्रकट करने के लिए इस दिन यहां के सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के दरबार में उपस्थित होते हैं। विशेष बात यह है कि जिस दिन देशभर में दशहरा मनाए जाने के साथ ही इस उत्सव का समापन होता है, उसी दिन कुल्लू के दशहरे की शुरुआत होती है और यह आयोजन सात दिनों तक चलता है। अंतिम दिन जानवरों की बलि दी जाती थी लेकिन बलि देने की प्रथा अब सांकेतिक कर दी गई है। इस आयोजन के बारे में मान्यता है कि इसकी शुरूआत 17वीं शताब्दी में राजा जगतसिंह ने की थी।

दशहरे के आयोजन पर पंजाब के अमृतसर में खास उत्साह देखा जाता है। यहां रामलीला के दिनों में ढोलक की थाप पर हनुमान का रूप धरे बच्चों की टोलियां नाचती-गाती नजर जाती हैं और शहर का पूरा वातावरण हनुमानमय प्रतीत होता है। पंजाबी वेशभूषा में लाल कपड़े पहने और हाथ में छोटी-छोटी गदाएं लिए बच्चों की ये वानर सेनाएं अद्भुत नजारा पेश करती हैं। दरअसल माना जाता है कि अश्वमेध यज्ञ के दौरान जब श्रीराम द्वारा छोड़े गए यज्ञ के घोड़ों को लव-कुश ने पकड़ लिया था तो अमृतसर की ही पावन धरती पर घोड़ों को लव-कुश से छुड़ाने के लिए श्रीराम ने हनुमान को यहां भेजा था।

उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद, काशी, लखनऊ इत्यादि क्षेत्रों में दशहरे की विशेष धूम देखी जाती है। यहां होने वाली रामलीलाओं का स्वरूप तो भगवान श्रीराम की जीवनलीला पर ही आधारित है और दशहरे के दिन रावण, कुम्भकर्ण व मेघनाद के विशालकाय पुतले भी जलाए जाते हैं किन्तु काशी में मनाई जाने वाली कृष्णलीला, शिवलीला, विष्णुलीला के साथ-साथ दशहरे के मौके पर आयोजित होने वाली रामलीलाओं का भी अपना विशेष महत्व है। हाथी पर सवार होकर काशी नरेश खुद दशहरे के मेले में शामिल होते रहे हैं।

बिहार में यह त्यौहार रामलीलाओं और रावण वध के साथ-साथ दुर्गा पूजा के रूप में भी मनाया जाता है। नौ दिनों की दुर्गा पूजा के बाद दशहरे वाले दिन लोग एक ओर जहां नदियों अथवा तालाबों में दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन करते हैं, वहीं सायंकाल में रावण वध का आयोजन भी बड़ी धूमधाम से होता है और जगह-जगह बड़े-बड़े मेले लगते हैं।

हरियाणा में दशहरे को वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद ऋतु के आरंभ के रूप में माना जाता है। व्यापारी इसी दिन से नए बही-खाते बनाते हैं। किसी बर्तन में मिट्टी में जौ बोए जाते हैं, जो दशहरे के दिन तक उगकर काफी बड़े हो जाते हैं। दशहरे के दिन घर के बड़ों को ये ज्वारे भेंटकर बच्चे उनसे आशीर्वाद लेते हैं। ज्वारे पूजा स्थल पर भी रखे जाते हैं। शाम को रामलीला में पुतलों का दहन होता है और जमकर आतिशबाजी होती है।

पश्चिम बंगाल में दशहरे के अवसर पर नवरात्रों की धूम देखी जाती है। यहां दुर्गापूजा का विशेष महत्व है। नवरात्रों के समापन पर लोगों की टोलियां दशहरे के दिन दुर्गा की विशाल प्रतिमाएं बड़े उत्साह के साथ नदी-तालाबों में विसर्जित करती हैं।

राजस्थान में दशहरे के पर्व को ‘वीरों का पर्व’ भी कहा जाता है। इस अवसर पर यहां शस्त्र पूजा भी होती है तथा शमी के वृक्षों का भी पूजन किया जाता है। माना जाता है कि भगवान श्रीराम ने भी शमी के वृक्षों की पूजा की थी और पूजा से प्रसन्न होकर इन वृक्षों ने उन्हें रावण जैसे महाबलशाली राक्षसों पर विजयी होने का वरदान दिया था। शाम को होने वाले पुतला दहन समारोहों में लोग उत्साह के साथ भाग लेते हैं। राजस्थान में हाड़ोती में मनाए जाने वाले दशहरे का स्वरूप तो बिल्कुल भिन्न है। यहां मिट्टी के रावण को लाठियों से पीटा जाता है। शाम के समय लोग रावण जी चौक में एकत्रित होते हैं और मिट्टी से बने रावण के पुतले पर पहले तो पूरी ताकत के साथ एक-एक पत्थर फेंककर मारते हैं, उसके बाद श्रीराम की पूजा की जाती है और तत्पश्चात् लाठियों से रावण के पुतले को पीटा जाता है। इस बारे में लोगों की यही धारणा है कि ऐसा करने से लोगों को बीमारियां नहीं होती और वे पूर्ण रूप से स्वस्थ रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि 13वीं सदी से दशहरे का आयोजन यहां इसी तरह हो रहा है।

महाराष्ट्र में इस दिन शस्त्रों की पूजा होती है। गणेशोत्व की भांति दुर्गोत्सव भी बहुत श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मनाया जाता है। दशहरे के दिन शाम को पुतलों का दहन करने से पहले लोग जमकर आतिशबाजी का मजा लेते हैं और पुतलों के दहन के बाद राम की पूजा करते हैं। इस अवसर पर यहां एक अलग परम्परा प्रचलित है। रावण दहन के बाद लोग मित्रों व रिश्तेदारों को सोना पत्ती (शमी नामक वृक्ष की पत्तियां) देकर उनसे गले मिलते हैं। इस संबंध में कहा जाता है कि रावण के वध के बाद जब विभीषण को लंका का राजा बनाया गया था तो उसने वहां का सारा सोना लोगों में बांट दिया था। यह भी कहा जाता है कि पांडवों ने अपने हथियार अज्ञातवास के दौरान शमी वृक्ष के नीचे ही छिपाए थे।

गुजरात में दशहरे से पहले आयोजित किया जाने वाला नवरात्रि उत्सव यहां का सबसे रंगीला पर्व माना जाता है। रंग-बिरंगी पोशाक पहने लोग मुख्य चौक पर एकत्रित होते हैं और वहां सामूहिक गीत-संगीत के कार्यक्रम चलते हैं। नवरात्रों की सभी नौ रातों को रास और गरबा नृत्य के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। जगह-जगह पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं तथा दशहरे की शाम को पुतलों को आतिशबाजी के साथ जलाया जाता है। नवरात्रों के दौरान यहां एक अन्य परम्परा भी प्रचलित है। मिट्टी के घड़ों में छिद्र करके उसमें दीये जलाकर इन मटकों को लोग अपने-अपने मोहल्ले के मुख्य चौराहों पर लटका देते हैं।

दक्षिण भारत में रामायण अलग-अलग नाम से प्रचलित है। तमिलनाडु में रामकथा का नाम ‘कम्ब रामायण’ के नाम से जाना जाता है, आंध्र प्रदेश में रंगनाथ रामायण और कर्नाटक में पम्पा रामायण। इन राज्यों में लकड़ी और चिकनी मिट्टी से बनी गुडि़यों को महिलाएं घर के विशिष्ट स्थान पर सजाती हैं। गुडि़यों के बीच एक कलश रखा जाता है, जो शक्ति व उर्वरता का प्रतीक माना जाता है। नौ दिनों तक इसकी पूजा होती है और दसवें दिन दशहरे की पूजा के बाद गुडि़यों को कपड़े में लपेटकर रख दिया जाता है और अगले वर्ष इन्हें फिर से उपयोग किया जाता है। दशहरे पर इन गुडि़यों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। तमिलनाडु में रामकथा को पुतलियों के नृत्य के जरिये प्रस्तुत किया जाता है, जिसे ‘बोम्बलाट्टम नृत्य’ के नाम से जाना जाता है। पुतलियों का यह नृत्य दूर-दूर तक काफी प्रसिद्धि लिए हुए है। केरल में रामकथा का प्रस्तुतीकरण कत्थकली नृत्य के माध्यम से होता है और इस नृत्य के लिए वहां कई अलग-अलग नृत्य नाटक लिखे गए हैं।

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योगेश कुमार गोयल(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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